उड़ने का चाव
तो मुझमे भी
था …
खिलने की इच्छा
से मैं भी
मचली थी …
पर मां ने
तो सिखाया सिमटना
...
नज़र झुका कर,
शब्दों को जी
में दबा कर
…
मां की सीख
को गाँठ बांध
मैंने …
अपने मन के
उत्साह को हमेशा
…
मन में ही
खामोश रखा …
भईया को स्कूल
जाते देख ललचाई
थी मैं …
भईया तो काम
पे जाएगा और
पैसा कमेगा …
पर तू तो
सासरे जाएगी और
रोटी बनाएगी…
सीखी सिखाई मैं सासरे
गई…
सासु का मान
और पति का
ध्यान रखती गई…
पर जो मैं
एक चिट्ठी पढ़ने
को कहि दू
…
या अपने नज़रिए
को हल्का सा
दर्शा दू …
तो उन्पढ़ बोल फटकार
मिले…
पीहर की और
देखू तो वो
भी मूह फेरे
…
अपनाया तो था
नहीं… अब पराया
भी कर दिया
…
तो धीरे धीरे
हर बेरुखी, हर
धिक्कार सराना सीख लिया
…
पर सखी ज्ञानशाला
आई तो एक
उम्मीद दिलाई…
मैं बोली के
अब मैं खुद
ही सीखू, हाँ
थोड़ा तो झिझ्कायी
…
तोडती, मरोड़ती पर हर
अक्षर लिखती…
अटकती, फिसलती पर फिर
कोशिश करती…
पर अब जो
मैं पढना सीख
गई…
तो
मोहताजी से छूट
गई…
चिट्ठी भी पढू और बालक की किताब भी …
चिट्ठी भी पढू और बालक की किताब भी …
किराने का सामान
या ढूध का
हिसाब भी …
पीहर को जाओ
और तहसील के
ऑफिस भी …
मान मिले और
सम्मान भी …
अब ना
ढून्ढू दूसरो में सहारा
…
खुद ही कर
लू काम सारा…
ये ख़ुशी जो
आए, विश्वास झिलमिलाए…
शिक्षा की रौशनी
से, जीवन दमकाए…
- आपकी अपनी
बिटिया
- Umang Sota
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